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सावन: वो बीते दिनों की महक, सावन के महीने की परंपराओं पर सोशल मीडिया का ग्रहण गांवों में विलुप्त होने की कगार पर सावन माह की परंपरा, आधुनिकता में खो रही संस्कृति

कही नजर नहीं आते सावन माह में पड़ने वाले झूले, सिर्फ यादें बनकर रह गई पुरानी परंपराएं

कही नजर नहीं आते सावन माह में पड़ने वाले झूले, सिर्फ यादें बनकर रह गई पुरानी परंपराएं

विकास सिंह, पीलीभीत।

पूरनपुर, पीलीभीत।

कभी सावन सिर्फ एक मौसम नहीं था, बल्कि गाँव की गलियों में खुशियों की एक लंबी ऋंखला होता था। बेताबी से बादलों की गड़गड़ाहट सुनते ही गांव के बच्चे, किशोरियाँ और महिलाएं पेड़ों की शाखाओं को निहारने लगती थीं — कौन सा पेड़ मजबूत है, किस पर झूला डाला जाएगा। नीम, आम, बरगद — सबके तने और शाखाएं गवाह थीं उन अनगिनत झूलों की जो सावन में गांव की पहचान बनते थे।जैसे ही पहला झूला पड़ता, मोहल्ले की सहेलियां अपनी चुन्नियों के पल्लू संभालतीं, गीले पांवों से कीचड़ भरे रास्तों पर दौड़तीं और मिलकर झूला झूलतीं। झूला झूलते हुए सावन के गीतों की मधुर धुन दूर तक सुनाई देती। “कौन कहे सावन आया, रिमझिम फुहारों ने बुलाया…” — ऐसे गीत खेतों और गलियों में नई जान डाल देते थे।

सावन में सिर्फ झूला ही नहीं, रिश्ते भी झूलते थे — ससुराल की दहलीज पार कर बेटियां मायके लौटती थीं। माँ अपने हाथों से बेटी के लिए घेवर बनाती, भाई बहन की कलाई पर राखी बांधने का इंतजार करता। सावन का झूला सिर्फ मस्ती नहीं, रिश्तों में मिठास घोलने का बहाना था।लेकिन आज सब कुछ बदल गया है। गांव के पेड़ कट गए, बाग-बगीचे खेतों में बदल गए। सहेलियों के समूह अब मोबाइल के फ्रेंडलिस्ट में सिमट गए हैं। सावन के गीत यूट्यूब पर बजते हैं लेकिन गांव की गलियों में नहीं गूंजते। झूला अब फोटो फ्रेमों में कैद होकर रह गया है।आधुनिकता की दौड़ में हमारी संस्कृति पीछे छूटती जा रही है। वह परंपराएँ, जिनसे गांवों की पहचान हुआ करती थी, आज गुमनामी के अंधेरे में खोती जा रही हैं। कभी सावन के महीने का बेसब्री से इंतज़ार होता था। सावन की शुरुआत से पहले ही गांव-गली के पेड़ों पर झूले डालने की तैयारियां शुरू हो जाती थीं। जैसे ही सावन आता, पेड़ों पर झूले पड़ जाते और युवतियां व बच्चियां समूह बनाकर झूला झूलने पहुँचतीं। सावन के गीतों की मधुर ध्वनि हर ओर गूंज उठती थी।सावन में तीज और रक्षाबंधन जैसे पर्वों का खास महत्व होता है। शादीशुदा बेटियों को मायके बुलाने की परंपरा थी। लेकिन अब आधुनिकता की चकाचौंध और सोशल मीडिया की लत ने इन परंपराओं को लगभग खत्म कर दिया है। ना अब गांवों में पेड़ों पर झूले पड़ते हैं और ना ही सावन के गीत सुनाई देते हैं।गांवों में पेड़-पौधों की कटाई के चलते भी झूला डालने की जगहें खत्म हो गई हैं। सोशल मीडिया पर व्यस्त रहने से युवतियों में आपसी मेल-जोल भी पहले जैसा नहीं रहा। पहले मनोरंजन के सीमित साधन थे, इसलिए ऐसे मौके आपसी भाईचारा और रिश्तों को मज़बूत करने का जरिया बनते थे। संयुक्त परिवारों में बुजुर्गों के फैसलों से पूरा परिवार एकजुट रहता था, लेकिन अब एकल परिवारों के कारण दूरियां बढ़ गई हैं।

आज सावन में झूला झूलने की जगह फेसबुक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब ने ले ली है। पुराने समय की वो टोली, वो समूह और वो गीत अब यादों तक ही सीमित होकर रह गए हैं।कभी जो सावन रिश्तों को बांधता था, अब वह इंस्टा रील्स और फेसबुक स्टोरीज़ में खो गया है। आज ज़रूरत है कि हम फिर से उन झूलों को तलाशें — पेड़ों पर नहीं तो कम से कम अपने रिश्तों में। ताकि आने वाली पीढ़ी सिर्फ किताबों में ना पढ़े कि “एक सावन ऐसा भी था, जिसमें गांव हरा-भरा होता था और रिश्तों में मिठास भी झूला करती थी…”। लेकिन अब सब सोशल मीडिया तक ही सीमित रह गया है।

 

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