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न्यूरिया में बाघों का आतंक: दहशत में जी रहे ग्रामीण, खेत-खलिहान सूने

बाघों की दहशत से सहमे ग्रामीण: नींद और चैन दोनों छिने

न्यूरिया में बाघों का आतंक: दहशत में जी रहे ग्रामीण, खेत-खलिहान सूने

बाघों की दहशत से सहमे ग्रामीण: नींद और चैन दोनों छिने

जंगल सुरक्षित, लेकिन गांव असुरक्षित – न्यूरिया की क्या गलती है?

पीलीभीत।जनपद इन दिनों एक ऐसे संकट से गुजर रहा है, जिसने ग्रामीणों की नींद और चैन छीन लिया है। बाघ और बाघिन के आतंक ने गांव-गांव भय का माहौल बना दिया है। हालात इतने गंभीर हो चुके हैं कि ग्रामीण इलाकों में शाम होते ही सन्नाटा पसर जाता है, लोग अपने घरों से बाहर निकलने से डरने लगे हैं।टांडा कॉलोनी, करनापुर और डंडियाकैमा जैसे गांव हाल के दिनों में ऐसे भयावह अनुभवों का सामना कर चुके हैं, जहां वन्य जीवों की मौजूदगी ने लोगों की सुरक्षा को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। न्यूरिया क्षेत्र की टांडा कॉलोनी का है, जहां आधी रात को एक बाघिन सीधे एक परिवार के आंगन तक पहुंच गई। यह दृश्य न केवल उस परिवार के लिए बल्कि पूरे गांव के लिए दहशत भरा था। वहीं करनापुर गांव में खेतों के पास बाघ को टहलते देखा गया, जिससे अफरा-तफरी मच गई। डंडियाकैमा गांव में भी बाघ देखे जाने की सूचना ने तनाव पैदा कर दिया है।इन सभी घटनाओं से एक बात साफ है कि बाघ अब जंगलों से निकलकर मानव बस्तियों की ओर बढ़ रहे हैं। और यह स्थिति अब केवल वन विभाग के लिए नहीं, बल्कि समूचे प्रशासन और जनप्रतिनिधियों के लिए एक चेतावनी बन चुकी है।इन भयावह परिस्थितियों के बीच एक नाम सबसे ज्यादा सामने आया है—महामंडलेश्वर एवं बरखेड़ा विधायक स्वामी प्रवक्तानंद महाराज का। चाहे करनापुर की घटना हो या डंडियाकैमा में बाघ की चहल-कदमी, हर बार स्वामी प्रवक्तानंद महाराज सबसे पहले मौके पर पहुंचे और न केवल मौके का निरीक्षण किया, बल्कि वन विभाग के अधिकारियों से संवाद कर ठोस कार्ययोजना बनाने की कोशिश भी की। उन्होंने ग्रामीणों से सीधे संवाद कर भरोसा दिलाया और सुरक्षा की मांग को लेकर प्रशासन पर दबाव भी बनाया।अब सवाल यह उठता है कि क्या पूरे जिले में केवल एक ही जनप्रतिनिधि की जिम्मेदारी है कि वह जनता की जान-माल की सुरक्षा के लिए आगे आए? राज्य मंत्री, सांसद और अन्य विधायक इस संकट में अब तक मौन क्यों हैं? क्या वे तब जागेंगे जब कोई बड़ी अनहोनी हो जाएगी या किसी ग्रामीण की जान चली जाएगी?वन विभाग का दावा है कि गश्त, पिंजरे, ट्रैप कैमरे और ड्रोन कैमरों की मदद से निगरानी की जा रही है, लेकिन यदि यह सब केवल फाइलों और बयानों तक सीमित रहा तो इसका कोई लाभ नहीं। जब ग्रामीण डर के कारण खेतों में जाना छोड़ दें, महिलाएं घर से बाहर निकलने में डरें और बच्चे स्कूल जाने से घबराएं, तो यह केवल वन्यजीवों की समस्या नहीं, बल्कि एक मानवीय आपातकाल बन जाता है।अब वक्त है कि यह मुद्दा केवल वन विभाग तक सीमित न रहे, बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक प्राथमिकता बने। ग्रामीणों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सामूहिक रणनीति बनाई जाए, ताकि हर सुबह कोई नया गांव बाघ की दहशत की कहानी न बने।जनता की ओर से एक ही सवाल हैं। कब खत्म होगा यह खौफ? और कब जागेंगे सभी जनप्रतिनिधि?

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